आम के आम गुठलियों के दाम
नेहा एक मेधावी छात्रा थी और जैसा कि हर मेधावी छात्र-छात्राओं की ऑंखों में अपने भविष्य के प्रति कोई ना कोई एक सपना तो होता ही है, नेहा के भी थे। अपने ही घर में अपनी माॅं की दुर्गति देखकर बचपन से ही उसने मन में ये ठान लिया था कि उसे अपने पैरों पर खड़ा होना ही है तभी उसकी जिंदगी बद से बदतर ना होकर बेहतर होगी।
अपने पैरों पर खड़ा होने से यहां मतलब नेहा का यह था कि उसे अपने जीवन में किसी और पर निर्भर नही रहना था बल्कि आत्मनिर्भर होना वह चाहती थी। छोटी से छोटी चीज के लिए अपनी माॅं को उसने तरसते देखा था। उन चीजों पर भी उसकी मां तरसती थी जिस पर उसका हक था और ऐसी बदतर जिंदगी देख कर उसे अपनी माॅं पर दया आने के साथ- साथ गुस्सा भी आता था कि उसकी माॅं अपने हक की लड़ाई नहीं लड़ रही है।
पुरुष प्रधान सोच और उसी को आधार बनाकर जीने वाले उस घर के सभी लोगों के लिए अपने-अपने दायरे थे और उसी दायरे में सभी अपना जीवन व्यतीत भी कर रहे थे लेकिन २१वीं सदी में जन्मी नेहा को यह दायरा पसंद नहीं था, उसे लगता था कि इस दायरे ने जैसे उसकी माॅ की जीने की स्वतंत्रता खत्म कर दी है वैसे ही उसे भी अपने जीवन में स्वतंत्र होकर जीने की आजादी तभी मिल पाएगी जब वह खुद को आत्मनिर्भर बनाएगी।
अपनी उम्र के अट्ठारहवें पड़ाव को पार करते ही जल्दी वह दिन भी नेहा के जीवन में आ गया जब उसने अपनी शादी की बात सुनी। अपनी माॅं के सामने तो उसने अपनी शादी का पुरजोर विरोध किया और अपने पढ़ने की बात भी रखी लेकिन उसकी जुबान तब बंद हो गई जब उसके पिता उसके सामने आए।
उसकी तरफ बढ़ाएं लड़के की तस्वीर को नेहा ने अपने पिता के उसकी तरफ बढाए हाथ से ले तो लिया लेकिन उस तस्वीर को उसने नजर भर भी ना देखा। अब उसे भी अपनी माॅं की तरह ही जिंदगी नसीब होगी, यही सोचते हुए दुल्हन के लिबास में उसने अपने पति राजेश के घर में उसके साथ गृह प्रवेश किया।
वैवाहिक जीवन की पहली रात ही राजेश के व्यवहार ने उसके मन ने यह तसल्ली तो दी कि राजेश उसके पिता जैसा तो बिल्कुल भी नहीं है। मन में उम्मीद की किरण तब जगी जब उसने डरते हुए बातों के क्रम में राजेश से अपने मन की बात कही। राजेश ने भी उसके आगे पढ़ने की बात का मान रखने का उससे वादा किया और कहा कि इसके बारे में वह जल्द ही अपने घर वालों से बात करेगा।
इंटर के बाद नेहा की बंद हो गई पढ़ाई ससुराल वालों के समर्थन और राजेश के साथ के कारण फिर से शुरू हो गई थी। वह बहुत खुश थी। उसकी पढ़ाई में अपनी - अपनी तरफ से सभी मदद करते थे और इस तरह उसने स्नातक की डिग्री भी प्राप्त कर ली।
सब कुछ अच्छा चल रहा था। नेहा माॅं भी बन चुकी थी तभी एक दिन राजेश की माॅं का देहांत हो गया और घर की सारी जिम्मेदारी नेहा के कंधों पर आ गई। नेहा खुश तो थी लेकिन फिर भी आत्मनिर्भर होने का सपना उसे चैन से सोने नही दे रहा था।
उसी बीच कोरोना नामक महामारी ने हमारे देश में प्रवेश किया और सबकी जिंदगी बदल सी गई। अब राजेश भी घर में ही रह कर ऑफिस का काम देख रहा था। राजेश के ऑफिस की तरफ से हो रही वीडियो कांफ्रेंसिंग मीटिंग को देखकर एक दिन नेहा के दिमाग में ये बात आई कि वह भी तो पढ़ाई के वीडियो बनाकर बच्चों को ऑनलाइन पढ़ा सकती है, वह भी बिना बाहर गए अपने परिवार की जिम्मेदारियों को निभाते हुए उनके साथ रहते हुए, वह कहते हैं ना "आम के आम गुठलियों के दाम"अर्थात दोहरा लाभ प्राप्त करना।
राजेश को भी नेहा कि यह बात अच्छी लगी और उसने अपनी तरफ से नेहा की हरसंभव मदद की। कुछ सालों बाद कोरोना महामारी भी चली गई और सब का जीवन भी सामान्य हो गया था । अब राजेश भी ऑफिस जाने लगा था लेकिन नेहा का काम वैसा ही चल रहा था जैसा पहले चला करता था।
घर - परिवार और अपने काम को करते हुए धीरे ही सही लेकिन नेहा की जिंदगी ने रफ्तार पकड़ ली थी। पैसे भी आने शुरू हो गए थे हालांकि राजेश कहता कि उसके कमाएं पैसे पर उसका भी हक है लेकिन अपने कमाए पैसे का एक अलग ही आनंद होता है इस बात का एहसास नेहा को भी हो रहा था। अब उसे उसके बचपन से देखे स्वप्न बेचैन नहीं करते थे बल्कि आम के आम गुठलियों के दाम वाली कहावत चरितार्थ करने के बाद उसके होठों पर इस खुशी का एहसास कराते थे कि अब वह आत्मनिर्भर हो चुकी है और किसी भी परिस्थिति का डटकर सामना करने की उसमें हिम्मत है।
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धन्यवाद 🙏🏻🙏🏻
गुॅंजन कमल 💗💞💓
# मुहावरों की दुनिया
सीताराम साहू 'निर्मल'
19-Feb-2023 03:24 PM
बेहतरीन
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डॉ. रामबली मिश्र
09-Feb-2023 08:34 AM
शानदार प्रस्तुति 👌
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